शनिवार, 16 अगस्त 2025

श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण : जीवन, व्यक्तित्व और योगदान

भूमिका

श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के महानतम व्यक्तित्वों में से एक हैं। वे केवल एक ऐतिहासिक या पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि भारतवर्ष में धर्म, दर्शन, सामाजिक चेतना और कला-संस्कृति की जीवंत प्रेरणा हैं। उनकी कथा महाभारत, पुराण, उपनिषद, और जाती-अनुजाती जनमानस की स्मृति में अमर है। श्रीकृष्ण के जीवन का हर पहलु मानव के लिए साधना, प्रेम, कर्तव्य और ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है।

जन्म और बाल्यकाल

श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में मथुरा नगर के जेल में कंस के कारावास में हुआ था। उनके माता-पिता वासुदेव और देवकी थे। कंस, जो श्रीकृष्ण का मामा था, ने उनकी माता को बंदी बना लिया क्योंकि देवकी का आठवां पुत्र ही कंस का वध करेगा, यह भविष्यवाणी थी। उस रात्रि, जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, मथुरा से गोकुल तक वासुदेव उन्हें ले गए, जहां उन्होंने यशोदा और नंद बाबा के घर बालक को स्थानांतरित किया और अपनी पुत्री योगमाया को लेकर लौटे।

बाल्यकथाएँ:

कालिया नाग का दमन
कालिया नाग एक बहुफन वाला जहरीला नाग था, जो यमुना नदी में रहता था। उसकी विषाक्तता के कारण यमुना का पानी काला और घातक हो गया था। एक दिन बालक कृष्ण अपने मित्रों के साथ खेलते-खेलते यमुना में चले गए और कालिया नाग से उनके युद्ध की शुरुआत हुई। कालिया ने कृष्ण का सामना किया, पर भगवान श्रीकृष्ण ने शक्ति और चमत्कार से उसके फनों पर नृत्य कर उसका अहंकार तोड़ दिया। अन्ततः कालिया की पत्नियों की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण ने उसे जीवनदान दिया, उसे वहां से जाने का आदेश दिया और यमुना को पुनः शुद्ध कर दिया। यह लीला अहंकार और बुराई पर सद्गुण की विजय का प्रतीक मानी जाती है.

पूतना वध

पूतना एक मायावी राक्षसी थी, जिसे कंस ने बालक कृष्ण को मारने के लिए भेजा था। वह सुंदर स्त्री का रूप धारण कर माता यशोदा के घर आई और अपने विषयुक्त स्तनों से कृष्ण को स्तनपान कराने लगी। लेकिन सर्वज्ञ श्रीकृष्ण ने उसके छल को पहचान लिया और स्तनपान करते-करते ही उसका वध कर दिया। पूतना भूमि पर गिर पड़ी और उसका अंत हो गया। श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही कई राक्षसों का वध किया, जिसमें पूतना का वध विशेष प्रसिद्ध है.

गोवर्धन पूजा
 गोवर्धन पूजा की कथा के अनुसार कृष्ण ने देखा कि गांववाले इंद्र देव की पूजा कर वर्षा के लिए अन्नकूट का आयोजन कर रहे हैं। कृष्ण ने समझाया कि गोवर्धन पर्वत उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां की घास से गायें चारा पाती हैं। अतः सबने गोवर्धन पर्वत की पूजा की। इससे इंद्र देव क्रोधित हो गए और मूसलधार वर्षा करके गांव को प्रभावित किया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठाकर गांववालों की रक्षा की। आखिर में इंद्र ने अपनी भूल मानी और क्षमा मांगी। तभी से गोवर्धन पूजा का पर्व मनाया जाता है.

माखन चोरी और बाल-क्रीड़ाएँ 
बाल कृष्ण के माखन चुराने की लीला ब्रज की ग्वालीनों के साथ खेल-हंसी से भरी थी। वे और उनके साथी खेतों-घरों से माखन चुरा कर योग-योगिनी गोपियों का प्रेम जीत लेते थे। ग्वालों एवं ग्वालिनों के साथ उनकी बाल-लीलाएँ—मटकी फोड़ना, चुपके से माखन खाना, क्रुद्ध गोपियों को मनाना—इन सब लीलों में कृष्ण की बाल सुलभ उल्लास, चपलता और अद्भुत प्रेम भाव प्रकट होता है। वास्तव में यह चोरी नहीं, बल्कि ब्रजवासियों का प्रेम और समर्पण दर्शाती है, जिसमें सभी कृष्ण को अपना मानते हैं, और उनकी लीला को दिव्य भाव से देखते हैं

कृष्ण का बाल्यकाल प्रेम, चंचलता और अद्वितीय शक्तियों से परिपूर्ण था। उन्होंने गोप-ग्वालों के साथ गाय चराते हुए, गोकुल के जीवन को आनंद और उल्लास से भर दिया। पूतना, शकटासुर, तृणावर्त और अन्य राक्षसों का वध करके बालकृष्ण ने बाल्यकाल में ही अपने दिव्यत्व को सिद्ध किया।

युवा अवस्था और रासलीला

कृष्ण के किशोरावस्था की सबसे प्रसिद्ध कथा रासलीला है। वृंदावन में गोपियों के साथ उनका रास केवल प्रेम और भक्ति का ही नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा की लीलाओं का प्रतीक है। राधा-कृष्ण का अद्वितीय प्रेम भारतीय साहित्य-संस्कृति में सर्वोपरि है।

रासलीला में कृष्ण स्वयं को हर गोपी के सामने प्रकट करते हैं। यह अद्वितीय लीला भक्ति के चरम को दर्शाती है जहाँ भगवान अपने भक्तों के प्रेम को श्रेष्ठ समझते हैं और उसमें स्वयं को तल्लीन कर देते हैं।

मथुरा आगमन और कंस वध

युवावस्था में श्रीकृष्ण ने मथुरा जाकर कंस का वध किया। कंस ने अखाड़े में अनेक असुरों को भेजा, जिनका श्रीकृष्ण और बलराम ने संहार किया। अंततः स्वयं कंस को परास्त करके माता-पिता को मुक्त कराया।

कृष्ण ने मथुरा को शासित किया और यदुवंश को पुनर्स्थापित किया। उसके बाद उन्होंने द्वारका नगरी की स्थापना की और उसे एक सशक्त राज्य बनाया।

रुक्मिणी, सत्यभामा और अन्य विवाह

कृष्ण का विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, लक्ष्मणा, कालिंदी और अन्य पत्नियों से हुआ। उनके वैवाहिक संबंधों में सामाजिक और धार्मिक आदर्श छिपे हैं। उन्होंने 16,108 रानियों से विवाह कर प्रभुता, क्षमा, समर्पण और सामाजिक पुनर्स्थापन का संदेश दिया, विशेषकर नरकासुर के द्वारा बंदी बनाई गई 16,100 स्त्रियों को स्वीकार कर।

श्रीकृष्ण और महाभारत

महाभारत कृष्ण के बिना अधूरी है। वे न केवल पांडवों के संरक्षक बल्कि पूरे युद्ध के निर्णायक हैं।

पांडवों का साथ

कृष्ण अर्जुन के मित्र और मार्गदर्शक के रूप में उपस्थित रहते हैं। वे नीति, चातुर्य और धर्म के संरक्षक के रूप में महाभारत-युद्ध का संचालन करते हैं।

युद्ध में भूमिका

कृष्ण ने शांति प्रयास के दौरान कौरवों को समझाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन जब बात नहीं बनी तो शस्त्राहीन, सारथी बनकर अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं। उन्होंने युद्ध की नीति, रणकौशल, और समय-समय पर श्रेष्ठ उपाय प्रस्तुत किए, जैसे-

  • भीष्म के पितामह को शरत शय्या दिलाना
  • दुर्योधन के वध के लिए भीम को संकेत देना
  • अश्वत्थामा के अस्त्र का समाधान बताना

श्रीमद्भगवद् गीता

महाभारत के मध्य में कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को मोहग्रस्त देखकर कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। इसमें धर्म, कर्म, ज्ञान, योग, भक्ति और मोक्ष के गूढ़ तत्व विस्तारपूर्वक हैं।

गीता के मुख्य उपदेश:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
योगस्थ: कुरु कर्माणि
मत्त: परतरं नान्यत्किंचित अस्ति धनञ्जय
सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज

गीता केवल धर्मयुद्ध की बात नहीं करती, बल्कि मनुष्य के जीवन, कर्म, और मुक्ति का शाश्वत मार्ग दिखाती है।

कृष्ण का दर्शन और भक्तिमार्ग

  • कृष्ण को द्वैत्य-अद्वैत, साकार-निराकार तथा अपरा-परा शक्तियों का समन्वय माना गया है।
  • वे प्रेम के देवता हैं, इसलिए राधा-कृष्ण का प्रतीक मीरा, सूर, तुलसीदास और अन्य संतों के भक्ति आंदोलन में केंद्र हैं।
  • वैष्णव संप्रदायों में कृष्ण केंद्र हैं- जैसे गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, नाभादास, चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य इत्यादि।
  • उनका मधुर्य, वीर्य, वात्सल्य, सख्य और दास्य भाव भक्ति में सर्वोपरि है।

सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक योगदान

श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना, समाज सुधार, समता, नीति और शांति स्थापना के लिए सतत प्रयास किए।

द्वारका का निर्माण- संगठित नगरीय जीवन का उदाहरण।

नरकासुर वध- महिलाओं का उद्धार।

शिक्षा एवं उपदेश - गांधीजी, लोकमान्य तिलक, श्री अरविन्द आदि ने कृष्ण के उपदेशों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा।

सांस्कृतिक- कृष्ण से जुड़ा संगीत, नृत्य, चित्रकला (मथुरा, वृंदावन, द्वारका के मंदिरों में चित्रित) समृद्ध है।

कृष्ण का प्रभाव साहित्य, कला और संगीत में

साहित्य: जयदेव, सूरदास, रसखान, नाभादास, मीरा बाई, बिहारी आदि ने कृष्ण पर अनेक रचनाएँ लिखी।

संगीत: ब्रज की होली, झूला, रास, गीत गोविंद, भजन, कवित्त, ठुमरी, दादरा इत्यादि।

कला: कृष्ण की मूर्तियाँ, चित्रण, रासलीला की झाँकियाँ, मत्स्य, गोकुल, वृंदावन के मंदिर।

विरासत और महत्व

आज भी श्रीकृष्ण भारतीय जनमानस के प्रेरणास्त्रोत हैं। उनकी कथाएँ नैतिक शिक्षा, धर्म, प्रेम, सेवा, त्याग, निर्भीकता और सत्यनिष्ठा का आदर्श देती हैं। कृष्ण केवल भारत में ही नहीं, विश्व में भी अनेक देशों में पूजित हैं।

उनका संदेश सदा के लिए है – “जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं आता हूँ।”

उपसंहार

श्रीकृष्ण का जीवन और संदेश युगों-युगों तक मानव समाज के लिए मार्गदर्शक है। उनकी कथा न केवल मन को मोहती है, अपितु जीवन को श्रेष्ठ, सुलभ और आनंदमय बनाती है। श्रीकृष्ण के विभिन्न रूप – बालगोपाल, यमुना-केलि, रासबिहारी, द्वारकाधीश, नीति-कुशल – सभी धरातलों पर मानव के उत्थान के प्रतीक हैं।

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