सोमवार, 14 अप्रैल 2025

डॉ. भीमराव अम्बेडकर की जीवनी

 डॉ. भीमराव अम्बेडकर-:भारतीय संविधान के स्मृतिकार

परिचय-:

  • डॉ. भीमराव अंबेडकर जो कि बाबासाहेब अंबेडकर के नाम से लोकप्रिय थे भारतीय संविधान के मुख्य निर्माताओं में से एक थे।
  • डॉ. अंबेडकर एक प्रसिद्ध राजनीतिक नेता, दार्शनिक, अर्थशास्त्री,लेखक,न्यायविद्, बहु-भाषाविद्, धर्म दर्शन के विद्वान और एक समाज सुधारक थे, जिन्होंने भारत में अस्पृश्यता और सामाजिक असमानता के उन्मूलन के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया।

जीवन परिचय-:
      नाम: भीमराव रामजी अंबेडकर
      जन्म: 14 अप्रैल 1891, महू (मध्य प्रदेश)
     पिता: रामजी मालोजी सकपाल
     माता: भीमाबाई

उनका जन्म हिन्दू महार जाति (Hindu Mahar Caste) में हुआ था। उन्हें समाज में हर तरफ से भारी भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि महार जाति को उच्च वर्ग द्वारा "अछूत" के रूप में देखा जाता था।
वे अपने माता पिता की 14वी संतान थे 1896 में आंबेडकर जब 5 वर्ष के थे तो उनकी माता की मृत्यु हो गई थी! उनके पिता की बड़ी बहन मीराबाई ने उनकी देखभाल की बाद में मीराबाई के कहने पर उनके पिता ने जीजाबाई से पुनर्विवाह किया ताकि भीमराव को माँ का प्यार मिल सके 

बाबासाहेब अंबेडकर की शिक्षा-:

1907 में, उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले वर्ष उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया, जो कि बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध था। इस स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने वाले अपने समुदाय से वे पहले व्यक्ति थे
1912 तक, उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में बी ए की डिग्री प्राप्त की!
1913 में, आम्बेडकर 22 वर्ष की आयु में अमेरिका चले गए जहां उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय  द्वारा स्थापित एक योजना के अंतर्गत न्यूयॉर्क नगर स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए तीन वर्ष के लिए 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। 1915 में उन्होंने अपनी एम ए की डिग्री प्राप्त की, स्नातकोत्तर के लिए प्राचीन भारतीय वाणिज्य  विषय पर शोध कार्य प्रस्तुत किया।
1916 में, उन्हें अपना दूसरा शोध कार्य, भारत का राष्ट्रीय लाभांश  एक ऐतिहासिक और विश्लेषणात्मक अध्ययन (National Dividend of India-A Historical and Analytical Study) के लिए दूसरी कला स्नातकोत्तर प्रदान की गई। 1916 में अपने तीसरे शोध कार्य ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास (Evolution of Provincial Finance in British India) के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री  प्राप्त की, अपने शोध कार्य को प्रकाशित करने के बाद 1927 में अधिकृत रुप से पीएचडी प्रदान की गई 

डॉ. अंबेडकर की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ-:
 समाचार पत्र मूकनायक (1920), एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (1936), द अनटचेबल्स (1948), बुद्ध ऑर कार्ल मार्क्स (1956) इत्यादि

भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता-:

सबसे पहले 1946 के कैबिनेट मिशन ने भारत के लिये एक नया संविधान बनाने के लिये संविधान सभा की स्थापना की सिफारिश की थी और इसके लिये जुलाई 1946 में चुनाव हुये थे जिसके बाद संविधान सभा में 389 सदस्य थे, हालांकि बाद में इस घटा कर 299 कर दिया
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा की 1946 में हुई पहली मीटिंग में इसका स्थायी अध्यक्ष चुना गया। कुछ दिनों बाद जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के लिये उद्देश्य संकल्प प्रस्तुत किया जिसको संविधान सभा द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया।
29 अगस्त 1947 संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान तैयार करने के लिये डॉ. भीम राव अंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान मसौदा समिति (Draft Committee)  का गठन किया। डॉ आंबेडकर बहुत ही योग्य संविधानविद थे और तमाम कानूनों के जानकार थे, इसलिए उन्हें ड्राफ्ट कमेटी का चेयरमैन बनाया गया था।

उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान मौलिक अधिकारों, मज़बूत केंद्र सरकार और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के क्षेत्र में था।

  • अनुच्छेद 32 का उद्देश्य मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु गारंटी, प्रभावी, सुलभ और संक्षेप उपचारों की व्यवस्था से है। डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद बताते हुए कहा था कि इसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय है।
  • उन्हें डर था कि स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर जातिवाद अधिक शक्तिशाली है तथा इस स्तर पर सरकार उच्च जाति के दबाव में निम्न जाति के हितों की रक्षा नहीं कर सकती है। क्योंकि राष्ट्रीय सरकार इन दबावों से कम प्रभावित होती है, इसलिये वह निचली जाति का संरक्षण सुनिश्चित करेगी
  • उन्हें यह भी डर था कि अल्पसंख्यक जो कि राष्ट्र का सबसे कमज़ोर समूह है, राजनीतिक अल्पसंख्यकों में परिवर्तित हो सकता है। इसलिये 'वन मैन वन वोट' का लोकतांत्रिक शासन पर्याप्त नहीं है और अल्पसंख्यक को सत्ता में हिस्सेदारी की गारंटी दी जानी चाहिये। वह 'मेजरिटेरियनिज़्म सिंड्रोम' के खिलाफ थे और उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिये संविधान में कई सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किये
समाज सुधारक-:

बाबा साहेब ने अपना जीवन समाज से छूआछूत व अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिये समर्पित कर दिया था। उनका मानना था कि अस्पृश्यता को हटाए बिना राष्ट्र की प्रगति नहीं हो सकती है
उनके लिये अस्पृश्यता पूरे हिंदू समाज की गुलामी  है जबकि अछूतों को हिंदू जातियों द्वारा गुलाम बनाया जाता है, हिंदू जाति स्वयं धार्मिक मूर्तियों की गुलामी में रहते हैं। 

बाबासाहेब ने कहा था "छुआछूत गुलामी से भी बदतर है


स्पृश्यता को दूर करने के लिये अपनाए गए तरीके-:

उनके मन को प्रभावित करने वाले मलिनता संबंधी मिथक को हटाकर अछूतों में आत्मसम्मान पैदा करना।

शिक्षा-:बाबासाहेब के लिये ज्ञान मुक्ति का एक मार्ग है। अछूतों के पतन का एक कारण यह था कि उन्हें शिक्षा के लाभों से वंचित रखा गया था। उन्होंने निचली जातियों की शिक्षा के लिये पर्याप्त प्रयास नहीं करने के लिये अंग्रेज़ों की आलोचना की। उन्होंने छात्रों के बीच स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को स्थापित करने के लिये धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर दिया।

आर्थिक प्रगति-:वह चाहते थे कि अछूत लोग ग्रामीण समुदाय और पारंपरिक नौकरियों के बंधन से मुक्त हों। वह चाहते थे कि अछूत लोग नए कौशल प्राप्त करें और एक नया व्यवसाय शुरू करें तथा औद्योगीकरण का लाभ उठाने के लिये शहरों की ओर रुख करें। उन्होंने गाँवों को 'स्थानीयता का एक सिंक, अज्ञानता, संकीर्णता और सांप्रदायिकता का एक खंड' के रूप में वर्णित किया।

राजनीतिक ताकत-:वह चाहते थे कि अछूत खुद को राजनीतिक रूप से संगठित करें। राजनीतिक शक्ति के साथ अछूत अपनी रक्षा, सुरक्षा और मुक्ति संबंधी नीतियों को पेश करने में सक्षम होंगे।
 
जाति व्यवस्था ने हिंदू समाज को स्थिर बना दिया है जो बाहरी लोगों के साथ एकीकरण में बाधा पैदा करता है। जाति व्यवस्था निम्न जातियों की समृद्धि के मार्ग में बाधक है जिसके कारण नैतिक पतन हुआ। इस प्रकार अस्पृश्यता को समाप्त करने की लड़ाई मानव अधिकारों और न्याय के लिये लड़ाई बन जाती है।

बाबासाहेब  के महत्पूर्व कार्य-: 

  • महाड़ आंदोलन(1927) महाराष्ट्र के महाड़ में हुआ था, जहाँ अंबेडकर ने दलितों को सार्वजनिक जल स्रोत (चवदार तालाब) से पानी पीने का अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह किया। यह भारत के सामाजिक आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर है।
  • वर्ष 1930 के कालाराम मंदिर आंदोलन में अंबेडकर ने कालाराम मंदिर के बाहर विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि दलितों को इस मंदिर परिसर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। इसने भारत में दलित आंदोलन को शुरू करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • वर्ष 1932 में उन्होंने महात्मा गांधी के साथ पूना समझौते पर हस्ताक्षर किये, जिसके परिणामस्वरूप वंचित वर्गों के लिये अलग निर्वाचक मंडल के विचार को त्याग दिया गया। 
  • वर्ष 1936 में बाबासाहेब अंबेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की
  • वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने बड़ी संख्या में नाज़ीवाद को हराने के लिये भारतीयों को सेना में शामिल होने का आह्वान किया।
  • डॉ. अंबेडकर ने शिक्षा को सामाजिक सुधार का सबसे बड़ा हथियार माना। उन्होंने दलितों के लिए स्कूल और कॉलेज खोलने, छात्रवृत्तियाँ दिलाने और शिक्षा के अधिकार के लिए सरकार पर दबाव डाला।

डॉ. भीमराव अंबेडकर का अंतिम समय-:

डॉ. अंबेडकर का जीवन अंत तक संघर्षों और समाज सेवा से भरा रहा। उनका स्वास्थ्य जीवन के अंतिम वर्षों में बहुत खराब हो गया था। उन्हें मधुमेह (डायबिटीज), उच्च रक्तचाप, और आँखों की समस्याओं से लेकर लगातार थकान जैसी बीमारियाँ परेशान कर रही थीं। फिर भी उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा।
1956 में उन्होंने अपना अंतिम क्रांतिकारी कदम उठाया,14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया, और उनके साथ लगभग 5 लाख अनुयायियों ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया। यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण धर्मांतरण था।
धर्म परिवर्तन के दो महीने बाद ही, 6 दिसंबर 1956 को उन्होंने दिल्ली स्थित अपने निवास स्थान पर अंतिम साँस ली। उनका पार्थिव शरीर मुंबई लाया गया, जहाँ दादर के 'चैत्यभूमि' में उनका अंतिम संस्कार किया गया। लाखों की भीड़ ने उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी।
उनकी मृत्यु को भारत की सामाजिक चेतना के एक युग का अंत माना जाता है, लेकिन उनके विचार और संघर्ष आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरणा देते हैं।
उनके अंतिम संस्कार को महापरिनिवार्ण कहा जाता है 

  • निष्कर्ष-:

    डॉ. भीमराव अंबेडकर एक विचारक, समाज सुधारक, और महान राष्ट्रभक्त थे। उन्होंने अपने जीवन को सामाजिक न्याय और समानता के लिए समर्पित कर दिया। उनका योगदान भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। इतिहासकार आर.सी. गुहा के अनुसार, डॉ. बी.आर. अंबेडकर अधिकांश विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता का अनूठा उदाहरण हैं। आज भारत जातिवाद, सांप्रदायिकता, अलगाववाद, लैंगिग असमानता आदि जैसी कई सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। हमें अपने भीतर अंबेडकर की भावना को खोजने की ज़रूरत है, ताकि हम इन चुनौतियों से खुद को बाहर निकाल सकें।

रविवार, 13 अप्रैल 2025

जलियांवाला बाग हत्याकांड-:भारत के इतिहास का काला दिन (13 अप्रैल 1919)

जलियांवाला बाग हत्याकांड : इतिहास का काला दिन (Jallianwala Bagh Massacre)

परिचय-:

 जलियांवाला बाग हत्याकांड  की घटना 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन हुई थी. अमृतसर के जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने शांतिपूर्ण सभा पर बिना चेतावनी के गोली चलवा दी. उस दिन कई लोग अमृतसर में त्योहार मनाने और रौलट एक्ट के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध में शामिल होने के लिए इकट्ठा हुए थे. रौलट एक्ट एक ऐसा कानून था, जिससे अंग्रेज बिना किसी मुकदमे के किसी को भी गिरफ्तार कर सकते थे.

इसी दौरान जनरल डायर अपने सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग पहुंचा. उसने बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलाने का आदेश दे दिया. बाग का एक ही रास्ता था और उसे भी बंद कर दिया गया. लोग भाग नहीं सके और कई लोगों की जान चली गई. यह घटना आजादी की लड़ाई में एक बड़ा मोड़ बन गई.

लोग रौलेट एक्ट और 10 अप्रैल को कांग्रेस के दो नेताओंडॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू के गिरफ्तारी के विरोध में इकट्ठा हुए थें।

रौलेट एक्ट-असली चिंगारी-:

प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान भारत में ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी आपातकालीन कानूनों की एक शृंखला बनाई जिसका उद्देश्य भारत में पनप रहे राष्ट्रवादी गतिविधियों का मुकाबला करना था। लेकिन भारतीयों को उम्मीद थी कि  युद्ध समाप्त होने के बाद उन्हें रियायत दी जाएगी लेकिन वर्ष 1919 में सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली राजद्रोह समिति की सिफारिशों पर रॉलेट एक्ट पारित कर दिया गया। इस अधिनियम ने सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिये अधिकार प्रदान किये और दो साल तक बिना किसी मुकदमे के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी। ऐसे में इसे भारतीयों ने ना अपील, ना दलील, ना वकील का कानून कहा।

       असल में यह भारत में बढ़ते असंतोष और राष्ट्रवादी आंदोलनों के जवाब में बनाया गया था। इसका उद्देश्य क्रांतिकारी गतिविधियों को दबाना और स्वतंत्रता संग्राम पर अंकुश लगाना था। यह अधिनियम भारतीय सदस्यों के एकजुट होकर किये गए विरोध के बावजूद इंपीरियल विधानपरिषद में जल्दबाजी में पारित किया गया था।

6 फरवरी 1919 को इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा रॉलेट एक्ट को पारित किया गया। इन बिलों को “ब्लैक बिल” के रूप में भी जाना जाता है।

रॉलेट एक्ट के विरोध का कारण-:

यह अधिनियम सरकार को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार दिए बिना व्यक्तियों को गिरफ्तार करने का अधिकार देता है। इसने बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को निलंबित कर दिया। इसने अधिकारियों को बिना किसी औपचारिक आरोप के संदिग्धों को अनिश्चित काल तक हिरासत में रखने की अनुमति दे दी। इस अधिनियम के तहत राजद्रोह के मामलों की सुनवाई जूरी की अनुपस्थिति में भी की जा सकती थी। इससे न्यायिक पारदर्शिता और निष्पक्षता से समझौता हुआ। इस अधिनियम ने प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी। इसने सरकार द्वारा राजद्रोही समझी जाने वाली सामग्री के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया

रॉलेट एक्ट के प्रावधान:

·       बिना मुकदमे की गिरफ्तारी: इस कानून के तहत पुलिस किसी भी व्यक्ति को बिना किसी वजह के गिरफ्तार कर सकती थी।

·       जेल में बंद करना: गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को बिना किसी सबूत के दो साल तक जेल में रखा जा सकता था।

·       मुकदमे का अधिकार नहीं: गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को मुकदमे का कोई अधिकार नहीं था।

·       दंड का प्रावधानअधिनियम के धारा 22 और 27 के तहत किसी भी आदेश की आज्ञा को ना मानने के लिए दंड का प्रावधान किया गया था, जो छह महीने की कैद या 500 रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते थें

जनता का असंतोष और अंग्रेजी शासन के खिलाफ बढ़ता आंदोलन-:

·       रौलेट एक्ट को लेकर जनता का असंतोष और अंग्रेजी शासन के खिलाफ बढ़ता आंदोलन बहुत ही महत्वपूर्ण था। जब रॉलेट एक्ट लागू हुआ, तो भारतीय जनता में भारी आक्रोश और असंतोष फैल गया। लोग इस कानून को अपने मौलिक अधिकारों पर हमला मानते थे।

·       महात्मा गांधी ने इस एक्ट के खिलाफ व्यापक स्तर पर विरोध और सत्याग्रह का आयोजन किया। जनता ने हड़तालें कीं, रैलियाँ निकालीं, और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुलकर अपनी नाराजगी जताई। इस विरोध ने पूरे देश में एकजुटता का माहौल पैदा किया और स्वतंत्रता संग्राम को एक नया मोड़ दिया।

·       जलियाँवाला बाग हत्याकांड, जो इसी आंदोलन के दौरान हुआ, ने जनता के गुस्से को और भड़का दिया। इस घटना ने ब्रिटिश शासन की क्रूरता को सबके सामने ला दिया और स्वतंत्रता की मांग को और मजबूती से उठाया। रौलेट एक्ट के कारण जनता और भी अधिक संगठित होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़ी हो गई।

13 अप्रैल 1919  एक खौफनाक दिन-:

·       लगभग 10 मिनट तक 1700 गोलियां चलाई गईं। 
·       बाग के चारों ओर ऊंची दीवारें थीं, और बाहर निकलने का एक ही संकरा रास्ता थाजिसे सैनिकों ने बंद कर दिया था।
·       लोग जान बचाने के लिए कुएं में कूद पड़े, कुछ एक-दूसरे पर गिरते-गिरते कुचल गए।

जनरल डायर का निर्दय बयान-:

जनरल डायर ने बाद में कहा"मैंने जानबूझकर गोली चलाई ताकि भारतीयों के दिल में डर बैठ जाए।"
उसके इस कृत्य को ब्रिटिश संसद में पहले सराहा गया, लेकिन बाद में जब सच्चाई सामने आई, तो कुछ नेताओं ने इसकी आलोचना की।

प्रतिक्रिया-:

·       रवींद्रनाथ टैगोर ने "नाइटहुड" की उपाधि लौटा दी

·       गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार पर से विश्वास खो दिया और असहयोग आंदोलन की शुरुआत की।

·       यह हत्याकांड भारत के युवाओं में आक्रोश की आग बनकर फैला, और भगत सिंह जैसे वीरों की सोच को क्रांतिकारी बना गया।

आज जलियांवाला बाग एक स्मारक है, जहां उस दिन की गोलियों के निशान आज भी दीवारों पर दिखते हैं। वहां का शहीदी कुआं, गोलियों से छलनी दीवारें, और शहीदों की याद में जलता अमर ज्योति का दीयाहर भारतीय को इतिहास का वह दर्दनाक अध्याय याद दिलाते हैं।

जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला-:

भारतीय इतिहास में 13 मार्च, 1940 का दिन बड़ी अहमियत रखता है. तब भारत पर ब्रिटेन  का शासन था. देश के सैकड़ों-हजारों युवा आजादी के लिए जान की बाजी लगा चुके थे. सैकड़ों क्रांतिकारी अंग्रेजों को देश से खदेड़ने को आतुर थे,ऐसे ही एक आजादी के दीवाने क्रांतिकारी ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने के लिए 13 मार्च, 1940 को पंजाब के तत्‍कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर (Michael O Dyer) की ताबड़तोड़ गोलियां मारकर हत्‍या कर दी थी.
जलियांवाला बाग की  घटना ने उनके मन में भी गुस्सा भर दिया. पढ़ाई-लिखाई के बीच ही वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़े. जनरल डायर को मारना उनका मकसद बन गया. वह 1934 में लंदन जाकर रहने लगे. रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की 13 मार्च, 1940 को लंदन के कॉक्सटन हॉल में बैठक थी. इस बैठक में डायर को भी शामिल होना था. ऊधम सिंह भी वहां पहुंच गए. जैसे ही डायर भाषण के बाद अपनी कुर्सी की तरफ बढ़ा किताब में छुपी रिवॉल्वर निकालकर ऊधम सिंह ने उस पर गोलियां बरसा दीं. डायर की मौके पर ही मौत हो गई. ऊधम सिंह पर मुकदमा चला. इसके बाद 31 जुलाई, 1940 को उन्हें फांसी दे दी गई.

निष्कर्ष-:

जलियांवाला बाग हत्याकांड सिर्फ एक नरसंहार नहीं था, यह आज़ादी की लड़ाई में एक ऐसी चिंगारी थी जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया। यह घटना आज भी हमें यह याद दिलाती है कि स्वतंत्रता हमें यूं ही नहीं मिलीयह शहीदों के लहू की देन है।

जलियांवाला बाग हत्याकांड हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता की राह कभी आसान नहीं होती। निहत्थे मासूमों की कुर्बानी ने एक पूरे राष्ट्र की चेतना को झकझोर दिया और भारतीयों के मन में यह दृढ़ निश्चय भर दिया कि अब गुलामी को और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

आज की पीढ़ी का यह कर्तव्य है कि वह उन शहीदों की कुर्बानी को याद रखे, और यह सुनिश्चित करे कि कभी भी ऐसी नाइंसाफी दोबारा हो। इतिहास को जानना सिर्फ ज्ञान नहीं, बल्कि चेतना का जागरण है।

World Homeless Day

विश्व बेघर दिवस विश्व बेघर दिवस की शुरुआत 10 अक्टूबर 2010 को हुई थी इसका उद्देश्य बेघरी और अपर्याप्त आवास जैसी समस्याओं पर जागरूकता लाना और...